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सामूहिक उत्सव का आदर्श उदाहरण है आदिवासियों का प्रमुख प्रकृति पर्व सरहुल

धरती माता को समर्पित और नए साल के स्वागत का त्यौहार है सरहुल

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रांची : सरहुल भारत के आदिवासी समुदायों का एक प्रमुख पर्व है। प्रकृति प्रेम से जुडा  ये पर्व झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पर्व को मुख्य रूप से मुण्डा, भूमिज, हो, संथाल और उराँव जनजाति के लोग मनाते हैं।

सरहुल पर्व का उत्सव चैत्र महीने के तीसरे दिन यानि  चैत्र शुक्ल तृतीया से शुरू हो जाता है। यह नए साल की शुरुआत की निशानी भी है। इस वार्षिक उत्सव को बसंत ऋतु के दौरान मनाया जाता है और इसमें पेड़ों और प्रकृति के अन्य तत्वों की पूजा शामिल होती है। इस समय, साल के पेड़ों में फूल आने लगते हैं।

सरहुल के शाब्दिक अर्थ की बात करें तो इसका अर्थ है ‘साल वृक्ष की पूजा’। आदिवासियों का मानना ​​है कि वे इस त्योहार को मनाए जाने के बाद ही नई फसल का उपयोग मुख्य रूप से धान, पेड़ों के पत्ते, फूलों और फलों का उपयोग कर सकते हैं।

सरहुल के अलावा विभिन्न जनजातियों में इस पर्व को अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। भूमिज इस पर्व को ‘हादी बोंगा’ के नाम से और संथाल इसे ‘बाहा बोंगा’ के नाम से मनाते हैं। कोल जनजाति में इस पर्व को बाहा पर्व भी कहा जाता है।

त्योहार के दौरान साल के फूलों, फलों और महुआ के फलों को जाहेरथान या सरनास्थल लाया जाता है, जहां पाहन (पुजारी), जनजातियों के सभी देवताओं की पूजा करते हैं। यह ग्राम देवता, जंगल, पहाड़ तथा प्रकृति की पूजा है जिसे जनजातियों का संरक्षक माना जाता है।

झारखंड में सभी जनजाति के लोग इस उत्सव को उत्साह और आनन्द के साथ मनाते हैं। पूजा पाठ के साथ ही रंग बिरंगे कपड़ों में सजे धजे आदिवासी पुरूष और महिलाएं मंदर की थाप पर सामूहिक नृत्य करती हैं।

इस पर्व में साल व सखुआ वृक्ष की विशेष तौर पर पूजा की जाती है। दरअसल यह भारत में प्रकृति एवं वृक्षों की पूजा की पुरानी परम्परा का ही हिस्सा है। ऋतुराज बसंत के आगमन के साथ ही सारा आदिवासी समुदाय पर्व की प्रतीक्षा करने लगता है।

सामूहिक उत्सव का आदर्श उदाहरण है आदिवासियों का प्रमुख प्रकृति पर्व सरहुल

कई दिनों तक चलने वाला यह पर्व इस बात की याद दिलाता है कि धरती और सूर्य के संबंध से ही प्रकृति में हरियाली आती है। सरहुल पूजा आरंभ होने से पूर्व पाहन या पुजारी और पहनाइन या पुजारिन को उपवास करना होता है। वे सुबह पूजा करते हैं। पाहन घर-घर जाकर जल और फूल वितरित करते हैं। वे महिलाओं के सिर पर पानी छिड़कते हैं। ऐसा माना जाता है कि महिलाओं पर ही घर का भाग्य निर्भर करता है। पाहन बरसो कह कर महिलाओं के सिर पर पानी छिड़कते हैं, ऐसा कर वह संतान प्राप्ति के लिए महिलाओं को शुभकामनाएं देते हैं। फूल वितरण कर पाहन यह कहते हैं कि फूल खिल गए हैं। इसलिए फल की प्राप्ति निश्चित है। हर्ष के इस त्योहार में गांव के सभी आदिवासी जन इकटठा होकर मांदर की थाप पर नृत्य करते हैं। सरहुल में सरना या पूजा स्थल के पास आम जन सामूहिक पूजा करते हैं। इस पूजा में सखुआ का फूल, सिंदूर, जल व दूब चढ़ाया जाता है। पूजा समाप्ति के बाद पाहन सखुआ के फूल को ही प्रसाद के रुप में श्रद्धालुओं के बीच वितरित करते हैं।

सरहुल प्रकृति पर्व है। यह आपसी प्रेम व भाईचारे को बढ़ावा देता है। साथ ही यह हमें जल, जंगल व जमीन की रक्षा की सीख देता है।

सरहुल उत्सव प्रकृति एवं पर्यावरण की सुरक्षा के रूप में मनाना चाहिए। आज जब पूरे प्रदेश में औद्योगिकीकरण के कारण प्राकृतिक आपदा एवं अनावृष्टि हो रही है, प्रतिदिन यहां जंगल-झाड़, पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, ऐसे में सरहुल उत्सव को संकल्प दिवस के रूप में मनाते हुए प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक पेड़ लगाने और उसकी सुरक्षा का संकल्प ले, तभी प्रकृति के इस महान पर्व की सार्थकता है।

 

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