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संथाल हूल दिवस: स्वाभिमान और बलिदान की अमर गाथा

हूल दिवस केवल एक ऐतिहासिक घटना की स्मृति नहीं, बल्कि शोषण के खिलाफ संघर्ष और स्वतंत्रता की भावना का उत्सव

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नव बिहान विशेष

30 जून, 1855 को झारखंड के साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में एक ऐसी क्रांति का बिगुल बजा, जिसने न केवल अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाई, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी भी सुलगाई। यह था संथाल हूल, जिसे संथाल विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। संथाली भाषा में ‘हूल’ का अर्थ है विद्रोह, और यह विद्रोह संथाल जनजाति के स्वाभिमान, साहस और बलिदान का प्रतीक है। प्रत्येक वर्ष 30 जून को मनाया जाने वाला हूल दिवस हमें उन वीर-वीरांगनाओं को याद करने का अवसर देता है, जिन्होंने अपनी माटी, जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।

संथाल हूल: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाई
अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाई

 

1855 में संथाल परगना (वर्तमान झारखंड और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्से) में अंग्रेजी शासन, जमींदारों और महाजनों की शोषणकारी नीतियों ने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1832 में दामिन-ए-कोह क्षेत्र का गठन कर संथालों को वहां बसने का लालच दिया, लेकिन जल्द ही उनकी जमीनें छीन ली गईं, अत्यधिक कर वसूले गए और बंधुआ मजदूरी थोप दी गई। सूदखोरी और भ्रष्ट राजस्व प्रणाली ने संथालों को आर्थिक और सामाजिक रूप से पंगु बना दिया।

इन अत्याचारों के खिलाफ सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव—चार मूर्मू भाइयों—तथा उनकी दो बहनों फूलो और झानो ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया। 30 जून, 1855 को भोगनाडीह में 50,000 से अधिक आदिवासियों ने एकत्र होकर ‘करो या मरो’ का नारा दिया और ‘अंग्रेजों, हमारी माटी छोड़ो’ की हुंकार भरी। यह विद्रोह केवल संथालों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह सभी शोषितों और गरीबों की सामूहिक वेदना का प्रतीक था।

विद्रोह की प्रमुख घटनाएं

विद्रोह संथाल जनजाति के स्वाभिमान, साहस और बलिदान का प्रतीक
विद्रोह संथाल जनजाति के स्वाभिमान, साहस और बलिदान का प्रतीक

 

संथाल हूल की शुरुआत भोगनाडीह में हुई, जहां सिद्धू को राजा, कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरव को सेनापति घोषित किया गया। परंपरागत हथियारों—तीर-धनुष और फरसों—से लैस संथालों ने जमींदारों, महाजनों और अंग्रेजी सिपाहियों का डटकर मुकाबला किया। एक उल्लेखनीय घटना में, क्रांतिकारियों ने दिघी के दारोगा महेश लाल दत्त और महाजन केनाराम भगत को मार गिराया, जिसके बाद ‘हूल-हूल’ का नारा पूरे क्षेत्र में गूंज उठा। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबाने के लिए क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं। सिद्धू और कान्हू को 26 जुलाई, 1855 को पकड़कर भोगनाडीह में पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गई। अनुमान है कि इस विद्रोह में लगभग 20,000 आदिवासी शहीद हुए। हालांकि, इस विद्रोह को 1856 में सैन्य बल द्वारा दबा दिया गया, लेकिन इसने अंग्रेजी शासन को यह स्पष्ट संदेश दिया कि भारतीय अपनी स्वतंत्रता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

हूल का दीर्घकालिक प्रभाव

संथाल हूल केवल एक विद्रोह नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता और स्वाभिमान की रक्षा का प्रतीक था। इस विद्रोह के परिणामस्वरूप 1856 में संथाल परगना का गठन हुआ और दुमका को इसका मुख्यालय बनाया गया। 1900 में मैक फेरहांस कमेटी ने आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा के लिए बंदोबस्त अधिनियम बनाया, जिसे 1949 के संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में शामिल किया गया। यह कानून आज भी आदिवासी जमीनों की रक्षा करता है।

हूल दिवस का महत्व

माटी, जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी
माटी, जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी

 

हूल दिवस केवल एक ऐतिहासिक घटना की स्मृति नहीं, बल्कि यह शोषण के खिलाफ संघर्ष और स्वतंत्रता की भावना का उत्सव है। यह हमें सिखाता है कि एकता और साहस के बल पर अन्याय का मुकाबला किया जा सकता है। आज देश भर में, विशेष रूप से झारखंड और पश्चिम बंगाल में, इस दिन को धूमधाम से मनाया जाता है। लोग सिद्धू-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण करते हैं, झांकियां निकालते हैं और पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हूल दिवस के अवसर पर आदिवासी समाज के साहस और बलिदान को नमन करते हुए कहा, “सिद्धू-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो जैसे वीर-वीरांगनाओं की कहानियां देशवासियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी रहेंगी।”

संथाल हूल दिवस हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए कोई भी बलिदान छोटा नहीं होता। सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव और फूलो-झानो जैसे नायकों ने अपनी जान देकर न केवल संथाल समुदाय, बल्कि पूरे देश को अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी। यह दिवस हमें यह भी सिखाता है कि जल, जंगल और जमीन की रक्षा के बिना हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान अधूरी है। आइए, इस हूल दिवस पर हम उन शहीदों को नमन करें और उनके आदर्शों को अपने जीवन में आत्मसात करने का संकल्प लें।

जय हूल! जय संथाल!

 

 

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