Nav Bihan
हर खबर पर पैनी नजर

81 के हुए दिशोम गुरु शिबू सोरेन, महाजनी प्रथा के खिलाफ किया था जंग का ऐलान

अलग झारखण्ड राज्य की मांग के साथ किया झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का गठन

80

गिरिडीह : झारखण्ड आन्दोलन के पुरोधा, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष, दिशोम गुरु शिबू सोरेन शनिवार यानि 11 जनवरी को 81 साल के हो गए. राँची स्थित आवास पर उनका जन्मदिन काफी धूम-धाम से मनाया गया. तत्कालीन हजारीबाग और अब रामगढ़ जिले के नेमरा गाँव में 11 जनवरी 1944 को शिबू सोरेन का जन्म हुआ था. शिबू सोरेन के पिता का नाम सोबरन सोरेन था. तब ये कौन जानता था कि एक आदिवासी सोबरन सोरेन के घर में पैदा हुए शिबू सोरेन आगे चल कर महाजनी प्रथा के खिलाफ आदिवासियों की बुलंद आवाज़ बन कर उभरेंगे और कालांतर में झारखंड की राजनीति में लोग उन्हें गुरुजी और दिशोम गुरु के नाम से जानेंगे.

81 के हुए दिशोम गुरु शिबू सोरेन, मुख्यमंत्री आवास में धूम धाम से मनाया गया जन्मदिन
81 के हुए दिशोम गुरु शिबू सोरेन, मुख्यमंत्री आवास में धूम धाम से मनाया गया जन्मदिन

 

दरअसल शिबू सोरेन के दिसोम गुरु बनने की कहानी उनके पिता सोबरन सोरेन से ही शुरू होती है. सोबरन सोरेन पेशे से शिक्षक थे और तब अपने इलाके में सबसे पढ़े-लिखे आदिवासी के रूप में जाने जाते थे. ये वो दौर था जब गरीब-आदिवासी, सेठ-साहूकारों के चंगुल में फंसा होता था. सोबरन सोरेन इलाके के आदिवासियों को इस बात के लिए प्रेरित करते थे कि वे अपनी जमीन सूदखोरों के पास गिरवी रखने के बजाय खुद उस पर खेती करें और बेहतर तरीके से अपना जीवन यापन करें. जाहिर है कि ये बात सेठ-साहूकारों को नागवार गुजरती थी.

27 नवम्बर 1957 को पिता की हुई रहस्यमयी हत्या ने शिबू सोरेन के जीवन की दिशा ही बदल दी. इससे पूर्व वे अपने बड़े भाई के साथ पढाई में जुटे थे. दरअसल शिबू सोरेन के दादा चरण मांझी तत्कालीन रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह के टैक्स तहसीलदार थे. इस वजह से उनके घर की आर्थिक स्थिति गाँव के अन्य लोगों से बेहतर थी. जानकारी के अनुसार शिबू सोरेन के दादा चरण मांझी ने 1.25 एकड़ जमीन गाँव के ही एक घटवार परिवार को दे दी. शिबू सोरेन के पिता सोबरन मांझी ने इस जमीन पर एक मंदिर बनाने का आग्रह किया, जिस वज़ह से गांव में ही रहने वाले कुछ महाजनों के साथ उनके परिवार का विवाद शुरू हो गया. इधर, सोबरन सोरेन ने अपने दो पुत्रों राजाराम सोरेन और शिबू सोरेन को गांव से दूर शहर में पढ़ने के लिये भेज दिया. 27 नवंबर 1957 को सोबरन सोरेन बेटों से मिलने पैतृक गांव से पैदल ही गोला के लिये निकले थे. इस दौरान बीच रास्ते में लुकरैयाटांड़ गांव के पास उनकी हत्या कर दी गयी. हालांकि, इस घटना के जिम्‍मेदार लोगों के बारे में आज तक पता नहीं चल पाया।

शिबू सोरेन की कुछ अनदेखी तसवीरें
शिबू सोरेन की कुछ अनदेखी तसवीरें

 

पिता सोबरन सोरेन की हत्या ने शिबू सोरेन को अंदर से झकझोर कर रख दिया था। इस घटना के बाद शिबू सोरेन का पढ़ाई में मन नहीं लगने लगा और उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और इसके साथ ही उनके सामाजिक और राजनीतिक जीवन के यात्रा की शुरुआत हुई. वे सेठ-साहूकारों और जमीन माफियाओं से आदिवासियों के हितों की रक्षा करने लगे. उन्होंने गोला क्षेत्र में ही युवाओं का एक संगठन बनाया और फिर यहीं से धनकटनी आंदोलन शुरू किया. वे अपने साथि‍यों के साथ जबरन साहूकारों का धान काटकर ले जाया करते थे. इससे शिबू सोरेन की अपने इलाके में अच्छी पैठ बनने लगी और वे आदिवासी हितों के रक्षक के रूप में एक बड़ा युवा आदिवासी चेहरा बन कर उभरे. ये वो दौर था जब शिबू सोरेन सरकार और प्रशासन की नज़र में एक अपराधी थे और उन्हें अंडरग्राउंड होकर अपना आन्दोलन चलाना पड़ता था. साहूकारों के खिलाफ आन्दोलन के साथ ही शिबू ने आदिवासी समुदाय में व्याप्त नशाखोरी और अन्य कुरीतियों के खिलाफ भी आवाज़ बुलंद की और धनबाद के टुंडी इलाके में घने जंगलों के बीच एक आश्रम की स्थापना की.

महाजनी प्रथा के खिलाफ शुरू हुआ ये आन्दोलन जल्दी ही झारखंडी अस्मिता और पहचान के साथ जुड़ गया और फिर शिबू सोरेन मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा के झारखंड अलग राज्‍य के अधूरे सपने को पूरा करने के लक्ष्‍य में जुट गये. इस आंदोलन में शिबू सोरेन को कॉमरेड एके राय, बिनोद बिहारी महतो और टेकलाल महतो का साथ मिला. झारखण्ड अलग राज्य के आन्दोलन को प्रभावी बनाने के लिए इन सबों को एक अलग राजनैतिक दल की ज़रुरत महसूस हुई और इस तरह 4 फरवरी 1972 को झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ. बिनोद बिहारी महतो को झामुमो का पहला अध्‍यक्ष और शिबू सोरेन को सचिव चुना गया. झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन इसी उद्देश्‍य से किया गया था कि जयपाल सिंह मुंडा के झारखंड अलग राज्‍य के सपने को पूरा किया जा सके. कालांतर में बिनोद बिहारी महतो की हत्या के बाद शिबू सोरेन को पार्टी का केन्द्रीय अध्यक्ष बनाया गया और वे आज भी झामुमो के केन्द्रीय अध्यक्ष हैं.

शिबू सोरेन की कुछ अनदेखी तसवीरें
शिबू सोरेन की कुछ अनदेखी तसवीरें

 

चुनावी राजनीति में प्रवेश की बात करें तो शिबू सोरेन ने पहली बार साल 1980 में लोकसभा का चुनाव लड़ा, पर उन्‍हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन, तीन साल बाद हुए मध्‍यावधि चुनाव में जीत का सेहरा उनके सिर पर बंध गया। इसके बाद 1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014 में वे दुमका लोकसभा सीट से लोकसभा पहुंचे। वहीं, तीन बार राज्यसभा के लिए चुने गए। वर्ष 2004 में केंद्र में बनी मनमोहन सिंह की सरकार में शिबू सोरेन कोयला मंत्री बने। लेकिन वर्ष 1975 में जामताड़ा जिले के चिरूडीह में हुई 11 लोगों की हत्‍या मामले में शिबू सोरेन के खिलाफ गिरफ़्तारी वारंट जारी हो गया, जिसके बाद 24 जुलाई 2004 को उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि, 8 सितंबर को जमानत पर रिहा होने के बाद उन्हें फिर से केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया और 27 नवंबर 2004 को कोयला मंत्रालय भी वापस दे दिया गया।

2 मार्च 2005 को काफी हाई वोल्टेज राजनैतिक ड्रामेबाजी के बीच उन्हें झारखंड के राज्यपाल द्वारा झारखंड में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया और शिबू सोरेन ने झारखण्ड के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. हालंकि सिर्फ 9 दिनों के बाद ही 11 मार्च को विधानसभा में विश्वास मत प्राप्त करने में विफलता के बाद, उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

पिछले कुछ दिनों से स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं की वजह से शिबू सोरेन राजनीति में सक्रिय तो नहीं हैं, पर उनके दिशा निर्देश पर उनके पुत्र हेमंत सोरेन ने ना सिर्फ पार्टी की कमान सफलतापूर्वक सम्हाली है, बल्कि झारखण्ड के मुख्यमंत्री के तौर पर भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है.

 

 

Comments are closed.