भारतीय सांख्यिकी के जनक, ‘प्रो प्रशांत चन्द्र महालनोबिस’
29 जून को भारत के महान वैज्ञानिक प्रो प्रशांत चन्द्र महालनोबिस की जयंती है. भारतीय सांख्यिकी के जनक, पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माण में अहम् भूमिका निभाने वाले भारत की इस विभूति को समर्पित ये विशेष आलेख.
आलोक रंजन
चाहे आध्यात्म की बात हो या विज्ञान की, भारत ने हर क्षेत्र में दुनिया को बहुत कुछ दिया है। विज्ञान की बात करें तो हमारे ऋषि मुनियों को हम दुनिया के पहले वैज्ञानिक बोल सकते हैं जिन्होंने अपने शोध के जरिए प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को समझा और हमें भी इसकी जानकारी दी। उन्होंने कई सिद्धांत प्रतिपादित किए जिनके आधार पर आधुनिक विज्ञान ने काफी तरक्की की और अब हम अंतरिक्ष में नगर बसाने की बात करने लगे हैं।
आधुनिक काल में भी भारत की उर्वरा भूमि ने कई वैज्ञानिकों को जन्म दिया जिन्होंने न सिर्फ भारत बल्कि विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई। उनके द्वारा किए गए आविष्कारों ने दुनिया की सूरत ही बदल कर रख दी। ऐसे ही एक वैज्ञानिक हैं ‘प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस’ जिन्हें भारत में सांख्यिकी का जनक कहा जाता है। उन्होंने ही अपने निजी प्रयासों से भारत में सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की। प्रशांत चंद्र महालनोबिस का जन्म कोलकाता के 210 कार्नवालिस स्ट्रीट स्थित उनके पैतृक आवास में 29 जून 1893 को हुआ था। उनके पिता का नाम प्रबोध चंद्र महालनोबिस था जो साधारण ब्रह्मो समाज के सक्रिय सदस्य थे। उनकी माता निरोदबसिनी का संबंध बंगाल के पढ़े-लिखे कुल से था। महालनोबिस की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उनके दादा, गुरुचरन महालनोबिस द्वारा स्थापित ब्रह्मो ब्वायज स्कूल में हुई। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा इसी स्कूल से 1908 ई में पास की। प्रेसीडेंसी कालेज से भौतिकी विषय में आनर्स करने के बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए ये लंदन चले गए। वहां इन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से भौतिकी और गणित दोनों विषयों से डिग्री हासिल की। ये एकमात्र छात्र थे जिसने भौतिकी में पहला स्थान प्राप्त किया था। उसके बाद ये कोलकाता लौट आए।
कैंब्रिज छोड़ने से ठीक पहले प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने अपने शिक्षक डब्ल्यू एच मैकाले के कहने पर ‘बायोमेट्रिका’ नामक किताब पढ़ी। इस किताब को पढ़ने के बाद ही इनका रुझान सांख्यिकी की ओर होने लगा। बाद में आचार्य ब्रजेन्द्रनाथ सील के निर्देशन में इन्होंने सांख्यिकी पर काम करना शुरु किया।
प्रोफेसर महालनोबिस ने इस दिशा में जो सबसे पहला काम किया, वह था कालेज के परीक्षा परिणामों का साख्यिकीय माध्यम से विश्लेषण। इस काम में उन्हें काफी सफलता मिली। इसके बाद महालनोबिस की मुलाकात नेल्सन अन्नाडेल से हुई, जो उस वक्त ‘जुलोजिकल एंड एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया’ के निदेशक थे। उन्होंने श्री महालनोबिस से संस्थान द्वारा कोलकाता के ऐंग्लो इंडियंस के बारे में एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण करने को कहा। इस विश्लेषण का जो परिणाम आया, उसे भारत में सांख्यिकी का पहला शोध-पत्र कहा जा सकता है।
वैज्ञानिक होने के अलावा श्री महालनोबिस की रुचि साहित्य में भी थी। उनके, गुरु रवीन्द्र नाथ टैगोर के साथ काफी अच्छे संबंध थे। बचपन में वे अपने दादा, गुरु चंद्र महालनोबिस के साथ गुरुदेव के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर के पास आते-जाते थे। प्रोफेसर महालनोबिस के संबंध गुरुदेव के साथ 1910 से ज्यादा प्रगाढ़ होने लगे जब वे पहली बार शांति-निकेतन पहुंचे। यहां महालनोबिस ने टैगोर के साथ दो महीने का समय बिताया। इस दरम्यान टैगोर ने उन्हें आश्रमिका संघ का सदस्य बना दिया। बाद में जब टैगोर ने ‘विश्व भारती’ की स्थापना की तो प्रोफेसर महालनोबिस को संस्थान का सचिव नियुक्त किया। इतना ही नहीं, प्रोफेसर ने गुरुदेव के साथ कई देशों की यात्रा भी की और कई महत्वपूर्ण दस्तावेज भी लिखे।
पंडित नेहरु के साथ थे गहरे ताल्लुकात
इस दौरान प्रोफेसर महालनोबिस की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने उनकी मदद लेना शुरु कर दिया और उन्होंने कृषि व बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में कई अभिनव प्रयोग किए। उनके द्वारा सुझाए गए बाढ़ नियंत्रण के उपायों पर अमल करते हुए सरकार को इस दिशा में अप्रत्याशित सफलता मिली।
इन उपलब्धियों के अलावा प्रोफेसर महालनोबिस का सबसे बड़ा योगदान उनके द्वारा शुरु किया गया ‘सैंपल सर्वे’ है, जिसके आधार पर आज बड़ी-बड़ी नीतियां और योजनाएं बनाई जा रही हैं। उन्होंने इसकी शुरुआत एक निश्चित भूभाग पर होने वाली जूट की फसल के आंकड़ों से की और यह बताया कि कैसे उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। हालांकि उनके काम के तरीके पर शुरुआत में सवालिया निशान लगाए गए पर उन्होंने बार-बार खुद को सिद्ध किया और अंततः उनके द्वारा किए गए कार्यों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता मिली। उन्हें आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा 1944 में ‘वेलडन मेडल’ पुरस्कार दिया गया जबकि 1945 में रायल सोसायटी ने उन्हें अपना फेलो नियुक्त किया। प्रोफेसर महालनोबिस चाहते थे कि सांख्यिकी का उपयोग देशहित में भी हो। यही वजह है कि उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माण में अहम भूमिका निभाई।
‘भारतीय सांख्यिकी संस्थान’ की स्थापना
17 दिसंबर 1931 का दिन भारत के इतिहास में काफी महत्वपूर्ण है। इस दिन प्रोफेसर महालनोबिस का सपना साकार हुआ और कोलकाता में ‘भारतीय सांख्यिकी संस्थान’ की स्थापना हुई। आज कोलकाता के अलावा इस संस्थान की शाखाएं दिल्ली, बैंगलोर, हैदराबाद, पुणे, कोयंबटोर, चेन्नई, गिरिडीह सहित देश के दस स्थानों में हैं। संस्थान का मुख्यालय कोलकाता है जहां मुख्य रुप से सांख्यिकी की पढ़ाई होती है। सन 1959 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान को ‘राष्ट्रीय महत्व का संस्थान’ घोषित किया गया। प्रोफेसर महालनोबिस को 1957 में अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान का सम्मानित अध्यक्ष बनाया गया। भारत सरकार ने 1959 में प्रोफेसर महालनोबिस को देश के सर्वोच्च सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया।
प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस एक दूरद्रष्टा भी थे। उन्होंने दुनिया को यह बताया कि कैसे सांख्यिकी का प्रयोग आम लोगों की भलाई के लिए किया जा सकता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के काफी नजदीक रहने के बावजूद उन्होंने कभी कोई पद आधिकारिक तौर पर स्वीकार नहीं किया। उन्हें विज्ञान में ब्यूरोक्रेसी पसंद नहीं थी।
उन्हें अपने संस्थान से काफी लगाव था और वे इसे हमेशा एक स्वतंत्र संस्था के रुप में देखना चाहते थे। शायद यही वजह है कि जब 1971 में इस संस्थान से जुड़े अधिकांश लोगों ने सरकार के साथ जाने का फैसला किया तो उन्हें आंतरिक तकलीफ पहुंची। जानकारों की मानें तो वे इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और 28 जून 1972 को उनकी मृत्यु हो गई।
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