राजनीति में शुचिता का पर्याय, कभी सरल तो कभी बागी, ऐसे थे गिरिडीह के पूर्व विधायक “ज्योतिन दा”
राजनीति में शुचिता के झंडाबरदार, मजदूरों और गरीबों की आवाज़, गिरिडीह के पूर्व विधायक ज्योतिन्द्र प्रसाद का आज, 31 जुलाई 2025 को सुबह बक्सीडीह रोड स्थित उनके आवास पर निधन हो गया. वे पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे. उनके निधन से जनता के लिए समर्पित राजनीति के एक युग का अंत हो गया, यदि ऐसा कहा जाए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.


राजनीति में शुचिता के झंडाबरदार, मजदूरों और गरीबों की आवाज़, गिरिडीह के पूर्व विधायक ज्योतिन्द्र प्रसाद, 31 जुलाई 2025 को सुबह बक्सीडीह रोड स्थित उनके आवास पर निधन हो गया. वे पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे. उनके निधन से जनता के लिए समर्पित राजनीति के एक युग का अंत हो गया, यदि ऐसा कहा जाए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. ज्योतिन्द्र प्रसाद, जिन्हें लोग प्यार से, “ज्योतिन दा” बुलाते थे, आजीवन मजलूमों के हक़ की आवाज़ बने रहे. इस आलेख के माध्यम से नव बिहान उनके जीवन के कुछ पहलुओं की जानकारी अपने पाठकों के साथ साझा करते हुए उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है.
ज्योतिन्द्र प्रसाद का जीवन और राजनीतिक कैरियर

ज्योतिन्द्र प्रसाद का राजनीतिक सफर युवा कांग्रेस से शुरू हुआ और 1980 का दशक आने तक वे गिरिडीह में कांग्रेस के एक प्रमुख नेता बन गए। वे माइका मजदूरों की आवाज थे और समर्थकों के बीच ‘ज्योतिन दा’ के नाम से लोकप्रिय थे। ये वो दौर था जब, गिरिडीह में वामपंथी राजनीति चरम पर थी और कम्युनिस्ट पार्टी के चतुरानन मिश्र गिरिडीह के विधायक थे. हालांकि 1980 ई में कांग्रेस नेता रंधीर प्रसाद की सड़क दुर्घटना में आकस्मिक निधन के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने उनकी पत्नी उर्मिला प्रसाद को टिकट दिया और सहानुभूति की ऐसी लहर चली कि वे चुनाव जीत गयीं. फिर 1985 के विधानसभा चुनाव में, जब कांग्रेस ने उर्मिला देवी को पुनः प्रत्याशी बनाया, तो ज्योतिन्द्र प्रसाद ने इसका विरोध किया. उन्होंने कांग्रेस आलाकमान को बताने का पूरा प्रयास किया कि जनता नाराज़ है और उर्मिला प्रसाद चुनाव हार जायेंगी. पर कांग्रेस ने उर्मिला प्रसाद को ही प्रत्याशी बनाया. इससे नाराज़ होकर ज्योतिन्द्र प्रसाद बागी हो गए और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा. चुनाव चिन्ह मिला ‘साइकिल’, तो अपने समर्थकों के साथ पूरे गिरिडीह विधानसभा का साइकिल से ही दौरा कर डाला. वे चुनाव जीत तो नहीं पाए, पर लगभग उन्होंने तब 8500 वोट प्राप्त किए, जो उनकी लोकप्रियता का प्रमाण था. इस तरह उन्होंने कांग्रेस पार्टी को अपनी ताकत का एहसास भी कराया.
1990 के चुनाव में, कांग्रेस ने उन्हें प्रत्याशी बनाया, और उन्होंने विधायक ओमीलाल आजाद को हराकर जीत हासिल की। हालांकि, बाद के चुनावों में वे जीत नहीं सके, और सीट भाजपा के चंद्रमोहन प्रसाद को मिली.
उनके योगदान और विरासत
ज्योतिन्द्र प्रसाद को उनकी ईमानदारी, जुझारूपन और सादगी के लिए जाना जाता रहेगा. वे कभी भी घूस नहीं लेते थे और हमेशा मजदूरों के हितों के लिए काम करते रहे. उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से भी खुलकर मुकाबला किया और भ्रष्टाचार के खिलाफ विधानसभा में धरना दिया.
उन्होंने गिरिडीह के प्रसिद्द रतन माइका में मजदूरों की छंटनी के बाद हड़ताल का नेतृत्व किया, जिसमें बर्खास्त मजदूरों को वापस नौकरी पर रखने की मांग की गई थी. पुराने लोग बताते हैं कि तब फैक्ट्री प्रबंधन ने उन्हें प्रलोभन देकर आन्दोलन समाप्त करने का भरसक प्रयास किया, पर उन्होंने किसी भी प्रकार के समझौते से इनकार कर दिया. उनके शुभचिंतक समझौते के लिए अटैची लेकर पहुंचे, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए और कहा, “मुझे तुम जीवन में कभी भी खरीद नहीं सकते हो.” अंततः प्रबंधन ने मजदूरों को वापस काम पर लिया, और हड़ताल खत्म हुई.
ऐसे और भी कई वाकयात हैं जो ‘ज्योतिन दा’ को भीड़ से अलग बनाते हैं. उनकी सादगी और सरलता आजीवन कायम रही. ऐसे दौर में जब “मुखिया पति प्रतिनिधि” बन कर भी लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियों की सवारी करते हैं, पूर्व विधायक ज्योतिन्द्र प्रसाद को कोई भी, कभी भी गिरिडीह की सड़कों पर पैदल घूमते, लोगों से उनका हाल-चाल पूछते देख सकता था. कहीं जाना हो, तो किसी भी दो पहिया वाले से लिफ्ट ले ली – ऐसे थे गिरिडीह के पूर्व विधायक ज्योतिन्द्र प्रसाद. अक्सरहां लोगों से लिफ्ट लेने वाले इस शख्स ने बेशक अपने निजी जीवन को आज के हिसाब से लिफ्ट करने का कभी सोचा भी नहीं, पर राजनीति में शुचिता को, सादगी को और समर्पण को उन्होंने जो लिफ्ट दिया है, उस ऊँचाई तक पहुंचना आने वाले समय में शायद ही किसी के लिए संभव हो.


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