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कौन थे झारखण्ड अलग राज्य आन्दोलन के प्रणेता ‘मरांग गोमके’, जयपाल सिंह मुंडा

संविधान निर्माण में अग्रणी और महती भूमिका निभाने वाले जयपाल सिंह मुंडा पर विशेष आलेख

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आलोक रंजन  

अगर हम आपसे कहें कि झारखंड अलग राज्य आन्दोलन की शुरुआत 1940 में ही हुयी थी, तो जो लोग जयपाल सिंह मुंडा को जानते हैं, उन्हें तो यकीन होगा, पर आप में से अधिकांश इस बात पर चौंक जायेंगे या संशय भी कर सकते हैं. पर ये बात सौ फीसदी सत्य है कि “मरांग गोमके” जयपाल सिंह मुंडा ने भारत की आज़ादी से पूर्व वर्ष 1940 में ही झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग की थी. वर्ष 1940 में रामगढ़ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था. तब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष थे और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सामने ही जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी ये मांग रखी थी. आखिर कौन थे, झारखण्ड ही नहीं, भारत के सबसे बड़े आदिवासी नेताओं में से उच्च शिखर पर बैठे, जयपाल सिंह मुंडा. आइए, इस आलेख के माध्यम से हम संक्षेप में आपको बताने का प्रयास करते हैं.

झारखण्ड के खूंटी जिले के टकरा गांव में 3 जनवरी 1903 को जयपाल सिंह मुंडा का जन्म हुआ. बचपन में उनको प्रमोद पाहन के नाम से जाना जाता था. उनका वास्तविक नाम ईश्वर जयपाल सिंह था. बाद में यही प्रमोद पाहन या ईश्वर जयपाल सिंह, “जयपाल सिंह मुंडा” बने. जयपाल सिंह मुंडा बचपन से ही काफी प्रतिभावान थे और बाद के दिनों में उनकी प्रतिभा का लोहा तो पूरी दुनिया ने भी माना. बात खेल की हो, राजनीति की हो या लेखन की, हर क्षेत्र में उन्होंने खुद को साबित किया.

जयपाल सिंह मुंडा ने पास की थी आईसीएस की परीक्षा

प्रमोद पाहन से मरांग गोमके बने जयपाल
प्रमोद पाहन से मरांग गोमके बने जयपाल

 

शिक्षा के क्षेत्र में भी जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर दिया. अंग्रेजों के जमाने में होने वाली सबसे कठिन परीक्षा ‘इंडियन सिविल सर्विस’ (आईसीएस) भी उन्होंने पास की थी. पर आदिवासियों के कल्याण का जुनून उन पर इतना हावी था कि उन्होंने आराम और रुतबे की नौकरी करने से बेहतर अपने आदिवासी समाज के लिए कुछ करने का संकल्प लिया और आईसीएस की ट्रेनिंग पूरी नहीं की. ट्रेनिंग छोड़कर उन्होंने राजनीति में कदम रखने का फैसला किया और जब तक जीवित रहे, आदिवासी हित की बात करते रहे.

भारत को ओलिंपिक में दिलाया था स्वर्ण पदक

जयपाल सिंह मुंडा हॉकी और फुटबॉल के भी बेहतरीन खिलाडी थे. उन्होंने कई वर्षों तक भारत की हॉकी टीम की कप्तानी की और उनकी कप्तानी में 1928 के एम्स्टरडम ओलिंपिक खेलों में भारत ने स्वर्ण पदक हासिल किया था. हालांकि टीम प्रबंधन से असहमति के कारण वे लीग मैच से आगे खेल नहीं पाए थे. बाद के दिनों में खेलों को छोड़ कर वे पूरी तरह से राजनीति में आ गए और आदिवासियों को उनका हक दिलाने के लिए जयपाल सिंह मुंडा ने वर्ष 1938 में आदिवासी महासभा का गठन किया. आजादी के बाद महासभा ने अपना नाम बदलकर ‘झारखंड महासभा’ कर लिया और चुनावी मैदान में उतर गई. 1952 के बिहार विधानसभा चुनाव में इसने 33 सीटें जीतीं. हालाँकि, धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता में गिरावट आई और बाद में इन्होंने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया.

संविधान निर्माण में निभाई महती भूमिका

संविधान निर्माण में अग्रणी और महती भूमिका निभाने वाले जयपाल सिंह मुंडा
संविधान निर्माण में अग्रणी और महती भूमिका निभाने वाले जयपाल सिंह मुंडा

 

भारत की संविधान सभा के ट्राइबल सदस्य के रूप में जयपाल सिंह मुंडा ने भारत के संविधान के निर्माण में अहम् भूमिका निभाई. संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने यादगार भाषण दिया था. उन्होंने आदिवासियों के हितों की रक्षा के मुद्दे को पुरजोर तरीके से संविधान सभा में रखा था. संविधान सभा में हुई बहस में हिस्सा लेते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने ऐतिहासिक भाषण दिया था. उन्होंने ताल ठोक कर कहा था कि आज जब तथाकथित सभ्य समाज के लोग लोकतंत्र की बात कर रहे हैं, ऐसे में इस सभा का एक “जंगली” सदस्य होने के नाते, उन्हें ये कहते हुए गर्व है कि आदिवासी समाज दुनिया का सबसे पहला और सबसे बड़ा लोकतांत्रिक समाज है. उनके भाषण के उस हिस्से का हिंदी अनुवाद आप भी पढ़ें –

     “मैं लाखों अज्ञात समूहों, फिर भी बहुत महत्वपूर्ण, की ओर से, स्वतंत्रता के अपरिचित योद्धाओं, भारत के मूल  लोगों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं, जिन्हें विभिन्न रूप से पिछड़ी जनजातियों, आदिम जनजातियों,आपराधिक जनजातियों और अन्य सभी के रूप में जाना जाता है. श्रीमान, मैं हूं जंगली और मुझे जंगली होने पर गर्व है. इसी नाम से हम देश के अपने हिस्से में जाने जाते हैं। एक जंगली के रूप में, एक आदिवासी के रूप में, मुझसे इस प्रस्ताव की कानूनी पेचीदगियों को समझने की उम्मीद नहीं की जाती है। आप आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते लोगों को उनसे लोकतांत्रिक तरीके सीखने होंगे। वे पृथ्वी पर सबसे अधिक लोकतांत्रिक लोग हैं।”

“मेरे लोगों का पूरा इतिहास भारत के गैर-आदिवासियों द्वारा लगातार शोषण और बेदखली का है, जो विद्रोह और अव्यवस्था से घिरा हुआ है, और फिर भी मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू की बात मानता हूं। मैं आप सभी की बात मानता हूं कि अब हम जा रहे हैं एक नया अध्याय शुरू करने के लिए, स्वतंत्र भारत का एक नया अध्याय जहां अवसर की समानता है, जहां किसी की उपेक्षा नहीं की जाएगी।” 

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