कथा-सम्राट की कथाओं में दृष्टि से ओझल प्रच्छन्न समाज
इस देश में परिवर्तनकामी जनसंघर्ष का यह दुर्भाग्य रहा है कि इसे साहित्य और संस्कृति के मोर्चे पर प्रेमचंद जी के बाद प्रेमचंद जी जैसा विराट दृष्टिफलक वाला कोई रचनाकार नहीं मिला
-महेन्द्रनाथ गोस्वामी “सुधाकर”
आज का समय प्रेमचंद के समय से काफ़ी बदल गया है. अपने देश की सामाजिक , शैक्षिक , और आर्थिक स्थिति वर्तमान में इस स्थान पर पहुंच गई है कि वर्तमान शासक वर्ग के साथ मध्य वर्ग के सम्पूर्ण स्वार्थों की सिद्धि मुश्किल है! हां,, साम्प्रदायिकता, जातिवाद जैसी कुछ समस्याओं से देशी मानसिकता में कुछ अकबकाहट है ; फिर भी एक वर्ग विशेष अब महसूस करने लगा है कि उसके सम्पूर्ण संभव-विकास और पूर्णकालिक स्वच्छंदता के लिए राजसत्ता के वर्तमान चरित्र और स्वरुप में बदलाव आवश्यक है. वर्ग विशेष की इस सोच को स्थायी भाव में रुपांतरित करना आज के समय की सबसे बड़ी मांग और चुनौती बन रही है. चिंतन का स्वभावांतरण शुद्ध सांस्कृतिक कर्म है, जिसे साहित्य और कला कर्म के द्वारा धार दी जा सकती है.
इस देश में परिवर्तनकामी जनसंघर्ष का यह दुर्भाग्य रहा है कि इसे साहित्य और संस्कृति के मोर्चे पर प्रेमचंद जी के बाद प्रेमचंद जी जैसा विराट दृष्टिफलक वाला कोई रचनाकर नहीं मिला.
अंग्रेजी राज से पराधीनता तो मिटी लेकिन औपनिवेशिक शोषण , उत्पीड़न नहीं मिटा. ओद्यौगिकीकरण के कारण जो शहरीकरण हुआ और मजदूरों के वर्ग की जो गोलबन्दी हुई, उससे समाज के ढांचे में एक बदलाव आया, जिससे नये अर्थ- सम्बन्ध का विकास हुआ. लेकिन इस गोलबन्दी और नये सम्बन्धों की सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तन में जो भूमिका होनी चाहिए थी , वह नहीं हो सकी, और न ही इस पूरी प्रक्रिया की समेकित सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ही घटित हुई. यदि ऐसा हुआ होता तो समाज में आज जो “एक नया लम्पट वर्ग” दिखाई देता है , वह नहीं दिखता. इसके साथ ही मध्यवर्ग भी इतना कुंठित, स्वार्थी , महात्वाकांक्षी और आत्मकेन्द्रित नहीं हुआ होता. इससे प्रेमचंद के साहित्यिक संघर्ष का कितना क्षय हुआ है – यह कल्पना से भी परे है ; क्योंकि प्रेमचंद जी के कहे अनुसार ही- “अगर ‘साहित्य राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने वाली सच्चाई है ‘ तो इस सच्चाई को परिवर्तनकारी भूमिका में उठकर खड़ा होने का इससे अच्छा समय आखिर और कैसा होगा ? इसलिए प्रेमचंद की परंपरा में खड़े रचनाकारों को आज अपनी विरासत से सबक सीखते हुए अपनी भूमिका में खड़े होने की आवश्यकता है.
मेरी समझ से प्रेमचंद जी के कथा संसार में यथार्थ का जो त्रासद रुप उद्घाटित हुआ है , उसके दो ही प्रमुख कारक तत्व दिखते हैं – पहला -औपनिवेशिक शोषण- दमन, और दूसरा – इस देश के ही सुविधाभोगी दलाल और महत्वाकांक्षी मध्य वर्ग !
धर्म और अंधविश्वास / साम्प्रदायिकता/ जातीय विद्वेष/ स्त्रियों पर अत्याचार / निरंकुश नौकरशाह/ रुढिवादी और जनद्रोही जनप्रतिनिधि गठबंधन/ कुंठित, दलाल मध्यवर्ग की अकर्मण्यता और महत्वाकांक्षा आदि पर प्रहार करने में प्रेमचंद “अग्रधर्मा” थे. प्रेमचंद जी की सभी कहानियां अपने समय और समाज की दहकती और वास्तविकता की बेचैन अभिव्यक्ति हैं , इसमें कोई संदेह नहीं. ऐसी अभिव्यक्ति ,जिनमें यथार्थ जितना विद्रूप और अमानवीय है, उतना ही सशक्त तीव्र प्रहारक है, उसके ध्वंस और निर्माण का सांस्कृतिक संदेश भी !
प्रेमचंद जी की प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में उनकी कहानियों के प्रमाणों और तथ्यों की विवेचना अब तक हजारों- हजार बार हो चुकी होंगी ऐसा मेरा ख़याल है. वस्तुत: सत्य तो यह है कि प्रेमचंद सत्य से कहीं पीछा नहीं छुड़ाते. और फिर जिस कालावधि में प्रेमचंद जी ने कहानियों की रचना की है, उस समय की स्थितियां वैसी ही रही होंगी. यह बात उनकी परवर्ती और तथाकथित रुप से यथार्थवादी कही जाने वाली कहानियों पर ही लागू नहीं होती , बल्कि उनकी आदर्शवादी कही जाने वाली कहानियों पर भी लागू होती हैं. परन्तु – यह भी सत्य और आश्चर्य का विषय है , कि देश का (झारखण्ड का) आदिवासी समुदाय वन प्रान्तर की ओट में प्रच्छन्न तो था ही , देश के इतने बड़े कथा-सम्राट की दृष्टि से ओझल और कलम से भी अछूता ही रह गया !
“सुधाकर”
31जुलाई2024
बहुआयामी प्रतिभा के धनी लेखक हिन्दी और खोरठा के प्रसिद्ध लेखक, कवि, कथाकार, कलाकार, नाट्यकार, मूर्तिकार हैं. कई प्रसिद्ध कृतियों के रचयिता, कई पुरस्कारों से सम्मानित “सुधाकर” जी का परिचय हम बहुत जल्दी अलग से प्रकाशित करेंगे
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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