बुझ गया ध्रुव तारा: दिशोम गुरु शिबू सोरेन का अवसान
एक युग की समाप्ति, एक संघर्षशील जीवन की अनमोल विरासत झारखंड की राजनीति में चार दशकों से अधिक समय तक ध्रुव तारा की तरह चमकते रहे दिशोम गुरु शिबू सोरेन अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन उनके जीवन की गाथा, आदिवासी समाज के लिए उनके संघर्ष, और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध उनका विद्रोह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना रहेगा।


नेमरा से निकलकर आंदोलन का अग्रदूत बनने तक
11 जनवरी 1944 को बोकारो जिले के गोला प्रखंड अंतर्गत नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन को बचपन में शिवलाल पुकारा जाता था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में और फिर गोला स्थित राज्य संपोषित हाई स्कूल से हुई, जहां वे आदिवासी छात्रावास में रहकर पढ़ाई करते थे। लेकिन नियति ने उनके जीवन की दिशा तब बदल दी, जब मात्र 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने पिता की हत्या का दर्द सहा।

1957 की वह भयावह सुबह
27 नवम्बर 1957 का वह दिन उनकी स्मृतियों में सदा के लिए बस गया, जब उन्हें खबर मिली कि महाजनों ने उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या कर दी है। महाजनों की अमानवीयता और अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने वाले गांधीवादी विचारों वाले उनके पिता की शहादत ने किशोर शिबू को झकझोर दिया। पढ़ाई छूट गई और हाथों में कलम की जगह अन्याय के विरुद्ध बिगुल थाम लिया गया।
महाजनी प्रथा के खिलाफ ‘उलगुलान’
ग्रामीण आदिवासी जनता महाजनों के कर्ज में जकड़ी थी—कभी सूदखोरी, तो कभी छल-प्रपंच से जमीन हड़प ली जाती। इसी अंधेरे में एक चिंगारी बने शिबू सोरेन। उन्होंने हड़िया और शराब के विरुद्ध लोगों को जागरूक किया, जन-जागरण अभियान चलाया और धीरे-धीरे उनके नेतृत्व में एक व्यापक सामाजिक आंदोलन खड़ा हो गया।
टुंडी की धरती बनी आंदोलन की कर्मभूमि
1972 से 1976 के बीच टुंडी का इलाका उनके आंदोलन का मुख्य केंद्र बन गया। जब-जब गुरुजी की आवाज उठी, हजारों तीर-धनुषधारी आदिवासी उनके साथ खड़े हो जाते। महाजनों द्वारा हड़पी गई जमीनें वापस ली गईं, खेतों की फसलें काटी गईं। पोखरिया गांव में स्थापित ‘शिबू आश्रम’ सामाजिक क्रांति का प्रतीक बन गया। यहीं से उन्हें मिला वह नाम—‘गुरुजी’, जो आदिवासी जनमानस में श्रद्धा से जुड़ गया।
राजनीति में प्रवेश और दिशोम गुरु की पहचान
1972 में शिवचरण मांझी नाम से जरीडीह से पहला चुनाव लड़ा। लेकिन असली राजनीतिक पहचान उन्हें संथाल की धरती से मिली। सामाजिक आंदोलनों की गूंज ने जब राजनीतिक मंच पर दस्तक दी, तो झारखंड आंदोलन को एक सशक्त स्वर मिला—दिशोम गुरु शिबू सोरेन के रूप में। उन्होंने सिर्फ राजनीति नहीं की, बल्कि झारखंड की आत्मा को जीवंत किया।
सांसद के रूप में पदार्पण
1980 में शिबू सोरेन पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए (दुमका से)।
इसके बाद 1989, 1991, 1996, 2002 (उपचुनाव), और 2004 में भी वे सांसद चुने गए।
उनकी छवि एक जुझारू आदिवासी नेता की बनी, जिन्होंने संसद में भी झारखंड की आवाज़ बुलंद की।
झारखंड राज्य का गठन और मुख्यमंत्री पद
झारखंड 15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर एक नया राज्य बना। इस ऐतिहासिक उपलब्धि में शिबू सोरेन की केंद्रीय भूमिका रही।
इसके बाद उनका राजनैतिक सफर झारखंड के भीतर और अधिक प्रभावी हुआ।
मुख्यमंत्री कार्यकाल (3 बार)
प्रथम कार्यकाल (2 मार्च 2005 – 12 मार्च 2005):
यह कार्यकाल केवल 10 दिन चला क्योंकि बहुमत साबित नहीं हो सका।
द्वितीय कार्यकाल (27 अगस्त 2008 – 18 जनवरी 2009):
इस दौरान उन्होंने कई जनकल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं, पर राजनीतिक अस्थिरता के कारण पद छोड़ना पड़ा।
तृतीय कार्यकाल (30 दिसंबर 2009 – 31 मई 2010):
झारखंड की राजनीति में गठबंधन की जटिलताओं के बीच यह कार्यकाल भी अल्पकालिक रहा।
केंद्रीय मंत्री के रूप में योगदान
2004 में यूपीए सरकार के दौरान शिबू सोरेन को कोयला मंत्री बनाया गया।
हालाँकि, विवादों और कानूनी मामलों के कारण उन्हें कुछ समय के लिए इस्तीफा देना पड़ा।
बाद में वे इन मामलों से बरी हुए और राजनीति में सक्रिय बने रहे।
आज जब गुरुजी हमारे बीच नहीं हैं, तब उनका जीवन झारखण्ड की अस्मिता के लिए एक मिसाल है—संघर्ष, समर्पण और स्वाभिमान की मिसाल।
उनकी विरासत केवल आदिवासी समाज की नहीं, बल्कि पूरे झारखंड की है।
झारखंड की माटी उन्हें नमन करती है।
शिबू सोरेन के जीवन की विशेष झलकियां
- जन्म: 11 जनवरी 1944, नेमरा गांव
- पहली बार चुनाव: 1972, जरीडीह से
- प्रमुख आंदोलन स्थल: टुंडी, पोखरिया
- उपाधि: दिशोम गुरु, गुरुजी
- खास योगदान: महाजनी प्रथा विरोध, सामाजिक सुधार, झारखंड आंदोलन

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